क्यों बोलते हो तुम।
आज तक बोल के हमने पाया ही क्या है सिवाया दुख के या किसी पश्चाताप के, ऐसा नही बोलना चाहिये था ,ये नहीं बोलना चाहये था,इतना भी नहीं बोलना चाहिये था याद इतनी बड़ी बात भी तो नहीं थी। किंतु आप तो बोल देते हो बस और फिर उसके बोझ को ढोते रहते हो। आपने खुद को न जाने कितनी बार समझाया है कि चुप रहा कर, शांत रहा कर या कम बोला कर यार लेकिन क्या आप समझे या आज तक आपके बोलने से कुछ हुआ।
आप बात बात पर दुनिया मे समझाने लग जाते हो कि ऐसा नहीं करना चाहिये ऐसा ठीक नहीं होता ऐसा नही करना चाहिये वैसा करना चाहिये लेकिन क्या आज तक कोई समझा। कितने लोग है जो आपके समझााने से समझा चुके है ,और ज्ञानी हो चुके हैं या क्या हमको ज्ञान है जो हम किसी कोे समझा रहे हैं पहले हम ही सही से समझ जायें जो शायद हमको बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
जिन्दगी में 90 प्रतिशत दुःख हमारे बोलने से पैदा होते हैं।
कभी हम गौर करें तो ये पायेंगे कि हमारी जिन्दगी के 90 प्रतिशत दुख हमारे बोलने से ही पैदा हुये हैं अगर हम न बोलते तो शायद वो दुख होते ही नहीं। जब भी हमने कहा है अक्सर खुद को मुसीबत में ही ड़ाला है। गुस्से में कहे गये शब्द जो कभी कभी जिन्दगी भर का पश्चाताप बन कर रह जाते हैं। रिश्ते खत्म हो जाते हैं यदि गलत शब्दो का प्रयोग किया जायें और भी अनगिनत दुःख हैं जो बोलने की वजह से पैदा होते है। जीवन में अधिकांश दुःख हमने इसी आदत से पैदा किये है।
बोलने से कई बेहतर है मौन।
कहते हैं न ”एक चुप सौ सुख हैं“
मेरा खुद की व्यक्तिगत सोच ये है कि चुप रहना बोलने से कई गुना बेहतर है क्योंकि ज्यादा बोलने से आपकी बात की अहमियत कम हो जाती है ज्यादा बोलना आपके निजी रिष्तों के लिये अच्छा नहीं होता क्योंकि कि ज्यादा बोलने से मनमिटाव पैदा होते हैं और वैचारिक मदभेद पैदा होते है।
जब आप किसी को सुनना शुरु करते हैं और बोलना कम करते हैं तो उसके दूरगामी परिणाम प्राप्त होते है। अक्सर देखने में ये आता है कि जब दो लोग बात कर रहे होते हैं जो एक बोल रहा होता है तो दूसरा अपने मन में उसको क्या जवाब देना है या खुद को कैसे बेहतर दिखाना है ये योजना चल रही होती है। तो देखा जाये तो दोनों ही बोल ही रहे होते है। एक बाहर और एक मन में। सुन कोई भी नहीं रहा होता है।
जब हम मौन को अपनाते हैं और दूसरों को सुनते हैं तो न सिर्फ हम उस बोलने वाले के सम्मान के पात्र बनते हैं बल्कि हमारी समझ और बेहतर होती है क्योंकि हमको दूसरों के विचारों से भी सीखने को मिलता है और ये हमारे व्यक्तित्व मे विकास करता है।
शांत रहना सीखना ही होगा।
जीवन में आगे बढ़ते हुये हम ये पाते हैं कि शांत रहना कितना जरूरी है क्यांकि एक वक्त जीवन में ऐसा आता है कि हमको समझ में आने लगता है कि जीवन की जितनी भी भाग दौड़ है जितनी भी उपलब्धियां हैं जीवन के जितने भी जरूरी काम है उनका कोई भी महत्व नहीं है अगर वो अपने साथ शांति खुषहाली और अमन चैन न लेके आयें तो। बढ़ती उम्र और सफेद होते हुये बाल और चेहरे पर पड़ती झुरियाँ हमारी जीवन के प्रति दृश्टिकोण को बदलना शुरु कर देती हैं क्योंकि जो हमने बचपन में सोचा होता है अब वो चीजें अब न तो उतनी महत्वपूर्ण लगती और जितनी कि कभी लगती थी। बचपन में जिन चीजों पे जान दिया करते थे आज वो किसी कोने पे पड़ी धूल फांक रही हैं। आज जीवन में अगर कोई चीज मायने रखती है तो वो है कि जीवन कितना सुकून भरा है और स्वास्थ्य कैसा है।
शांत हो जाना खुद को जीवन के बहुत नजदीक लेके आना है। ताकि हम जीवन को पास से समझ सकें और बेहतर हो सकें ।